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एब्स्ट्रैक्ट:तपती धूप में पाँच कारों का क़ाफ़िला ओडिशा के नंदनकानन के एक गांव से धीमी रफ़्तार में गुज़र रहा है. आ
तपती धूप में पाँच कारों का क़ाफ़िला ओडिशा के नंदनकानन के एक गांव से धीमी रफ़्तार में गुज़र रहा है.
आगे वाली खुली जीप में एक महिला खड़ी हुई है और झुक झुक कर लोगों से हाथ मिलते वक़्त उड़िया भाषा में कहती हैं, “पहले कोई नहीं आया तो क्या हुआ, हम तो आए हैं. बस मोदी जी को याद रखना”.
फ़र्राटेदार ओडिया बोलने वाली इन महिला का नाम अपराजिता सारंगी है जो बिहार की मूल निवासी हैं और जिन्हें भाजपा ने भुवनेश्वर लोक सभा सीट से टिकट दिया है.
अपराजिता पूर्व आईएएस अधिकारी हैं जिन्होंने कुछ दिनों पहले वीआरएस ले लिया था.
उन्होंने कहा,“मैं राजनीति में दो कारणों से आई. पहला, मोदी जी और अमित शाह का नेतृत्व और दूसरा कुछ असल काम करने की चाह. वोट माँगते समय सबसे कहती हूँ कि इस राज्य में पिछले कई वर्षों से हर चीज़ के अस्थायी समाधान दिए जा रहे हैं जिन्हें बंद कर भाजपा की सरकार आनी चाहिए”.
ओडिशा में बीजेपी की राजनीतिक साख
लोक सभा चुनावों के दूसरे चरण का मतदान ज़्यादा दूर नहीं है और सभी पार्टियों ने प्रचार में पूरा दम-खम लगा रखा है.
इसी कड़ी में भाजपा भी शामिल है जिसने 2014 के बाद से ओडिशा पर ख़ास ध्यान दे रखा है.
वजह साफ़ है. पिछले कई सालों से प्रदेश में भाजपा की राजनीतिक साख कमज़ोर रही है.
क़रीब 10 वर्ष पहले तक तो नवीन पटनायक की बीजू जनता दल (बीजेडी) से पार्टी का गठबंधन था. उन दिनों प्रदेश में भाजपा से ज़्यादा लोग बीजेडी को ही जानते थे.
पिछले आम चुनावों में भी भाजपा को ओडिशा में करारी शिकस्त मिली थी.
प्रदेश की 21 लोक सभा सीटों में से पार्टी के पास मात्र एक सीट है और 147 सदस्यों वाली विधान सभा में बमुश्किल से 10 विधायक हैं.
अगर विधायकों की बात हो तो कांग्रेस के पास भाजपा से ज़्यादा विधायक हैं.
धर्मेंद्र प्रधान का करिश्मा
चुनाव जीतने के साथ ही नरेंद्र मोदी कैबिनेट में ओडिशा के दो नेताओं, धर्मेंद्र प्रधान और जुअल ओरम, को जगह मिली और निर्देश भी कि 'मिशन ओडिशा' अब अगला पड़ाव है.
हालाँकि, राज्य के बड़े हिस्सों में इन दोनों नेताओं की कोई राजनीतिक ख़ास करिश्मा नहीं रहा है, लेकिन फिर भी प्रदेश में पार्टी के बड़े फ़ैसले धर्मेंद्र प्रधान लेते रहे हैं.
पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने बीबीसी से हुई बातचीत में उस दौर की कमियों पर भी बात की.
उन्होंने कहा, “पिछले चुनाव में देशभर में मोदी लहर थी जिसके बावजूद ओडिशा में हम इसका फ़ायदा नहीं उठा पाए. हम मोदी लहर को वोट में परिवर्तित नहीं कर पाए. हमारी संस्थागत क्षमता कम थी.”
धर्मेंद्र प्रधान के मुताबिक़, “बीते पांच साल में राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बार-बार ओडिशा का दौरा किया है और ज़िला स्तर तक पहुंचे हैं, पार्टी के संगठन के विस्तार की बड़ी योजना बनाई, समाज के हर वर्ग के लोगों को पार्टी से जोड़ा है.”
हक़ीक़त यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने पिछले कुछ सालों के दौरान ओडिशा में दो दर्जन से ज़्यादा रैलियां की हैं.
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मेहनत का असर
भाजपा की इस रणनीति का कुछ नतीजा तब दिखा जब 2017 के पंचायत चुनावों में पार्टी को प्रदेश में पहले से कहीं ज़्यादा सीटें मिलीं.
यही वजह है कि अब पार्टी प्रदेश में पूरे जोश के साथ लगी हुई है.
राजधानी भुवनेश्वर से ब्रह्मपुर, कालाहांडी या पुरी तक, हर जगह भाजपा के बड़े-बड़े होर्डिंग दिखाई पड़ते हैं.
दिलचस्प बात ये है कि उन सभी पर सिर्फ़ एक ही तस्वीर दिखती है, नरेंद्र मोदी की.
भाजपा के किसी भी स्थानीय नेता की तस्वीर बैनरों पर मिलना मुश्किल है. सिर्फ़ उन उमीदवारों की ज़रूर दिखती हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों से चुनाव लड़ रहे हैं.
सड़कों पर लाउडस्पीकर और बड़ी एलसीडी स्क्रीनों पर या तो नरेंद्र मोदी के भाषण चल रहे हैं और या केंद्र में सत्ताधारी भाजपा सरकार की स्कीमें.
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नरेंद्र बनाम नवीन
दूसरी दिलचस्प बात ये कि भाजपा के नरेंद्र मोदी वाले लगभग सभी बैनर-होर्डिंग वग़ैरह के पास ही आपको बीजू जनता दल प्रमुख और ओडिशा में 19 साल से मुख्यमंत्री रहे नवीन पटनायक के भी बैनर दिखेंगे.
तो क्या ओडिशा में लोक सभा और विधान सभा चुनाव नरेंद्र बनाम नवीन है?
उत्कल विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विभाग के प्रमुख रहे प्रोफ़ेसर अमरेश्वर मिश्र को लगता है कि वजह एक और है.
उन्होंने बताया, एक चेंज हो रहा है कि थोड़ा सा भाजपा आगे बढ़ रही है और कांग्रेस पीछे हो रही है. सो अभी जो लड़ाई है, आप देखेंगे बीजेपी और बीजेडी के बीच में ही होगी. लेकिन, जो लोग सत्ता में हैं, उसका थोड़ा ज़्यादा फ़ायदा होता है, आप यहाँ पूछेंगे गाँव में जाकर तो मिलेगा नवीन पटनायक ने सब किया है.''
बात में वज़न तब दिखा जब हम ग्रामीण इलाक़ों के दौरे पर गए. क्योंकि प्रदेश में बीजू जनता दल का कई दशकों से संगठनात्मक तरीक़े से काम होता रहा है तो नवीन पटनायक का कैडर काफ़ी फैला हुआ है. इसमें भी कोई शक नहीं कि वे लगभग दो दशक से वे प्रदेश के सबसे लोकप्रिय नेता भी हैं.
Image caption कुमारी जेना
मिसाल के तौर पर कुमारी जेना नामक एक गृहिणी ने बताया, “पीने के लिए अच्छा पानी नहीं मिलता. पानी के लिए बहुत मुश्किल होती है. चुनाव जीतने के बाद कोई भी हमें याद नहीं रखते, एक बार वोट हुआ तो कोई नहीं पूछता.”
पूछने पर कि वे किसे वोट देती आई हैं, उनके मुँह से निकला “नवीन बाबू को”.
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'बड़े नेता तो मोदी हैं'
उन्ही के गाँव में प्रदीप कुमार माँझी से मुलाक़ात हुई जो अपने को बीजेडी काडर बताते हैं.
हमने पूछा लोग पीने के पानी की कमी के बारे में शिकायत कर रहे हैं. जवाब मिला, “ पानी सब गावों में पहुँच गया है, बस थोड़ा-थोड़ा गाँवों तक नहीं पहुँचा है, वो भी हो जाएगा.” हमारा अगला सवाल था, क्या लगता है मोदी बड़े नेता है कि नवीन पटनायक?
जवाब तुरंत मिलता है, “बड़े नेता तो मोदी हैं. लेकिन ओडिशा में नवीन पटनायक बड़ा है.”
शायद यही वजह है कि भाजपा ने नवीन पटनायक से लोहा लेने के लिए नरेंद्र मोदी के बड़े क़द को सामने खड़ा किया है.
सच ये भी है कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने नवीन पटनायक को प्रदेश में 'बड़े झटके' भी दिए हैं.
2014 के आम चुनावों के दौरान ओडिशा राज्य में बीजू जनता दल में नवीन पटनायक के बाद बालभद्र माझी और बिजयंत पांडा की गिनती हुआ करती थी.
आज की तारीख़ में दोनों भाजपा के टिकट पर नवीन पटनायक के उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे हैं. लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होती.
कंधमाल से बीजेडी सांसद प्रत्यूषा राजेश्वरी सिंह, के नारायण राव और दामा राउत जैसे विधायक और कांग्रेस के प्रकाश बेहरा जैस जैसे नेताओं ने भाजपा का दामन थाम लिया है.
हालाँकि प्रदेश के बीजेडी नेताओं के मुताबिक़, “इस तरह से नेताओं को जुटा लेने से चुनाव नहीं जीते जाते`”.
हाल ही में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने भी एक बयान देते हुए कहा था, “इन दिनों भाजपा के लोग मेरे घर के बाहर मँडरा कर नेताओं को ढूँढने में लगे हैं क्योंकि उनके पास लोक सभा और विधान सभा में उम्मीदवार पूरे ही नहीं हो रहे`”.
भाजपा नेता धर्मेंद्र प्रधान ने इन आरोप को हँसते हुए ख़ारिज किया और कहा, “नवीन बाबू को कहने दीजिए. भाजपा पूर्ण बहुमत से सरकार बना रही है ओडिशा में”.
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क्या है नवीन पटनायक की सफलता का राज़?टिकट बंटवारे को लेकर कलह
सच ये भी है कि प्रदेश भाजपा में भी टिकट वितरण को लेकर थोड़ी कलह तो साफ़ दिखी है. आरएसएस परिवेश वाले और पिछले चुनावों में बेहद कम फ़ासले से हारे सुभाष चौहान जैसे नेताओं को टिकट नहीं मिला और वे पार्टी छोड़ गए.
सवाल ये भी उठ रहे हैं कि जब प्रदेश भाजपा में नवीन पटनायक के ख़िलाफ़ खड़े होने का क़द किसी नेता में नहीं है तो विधान सभा जीतने की स्थिति मुख्यमंत्री कौन बन कर निकलेगा.
राज्य में पहले चरण के मतदान के दौरान भी कई ऐसे वोटरों से बात हुई जो ये सवाल करते हैं कि, “मोदी तो मुख्यमंत्री बनेंगे नहीं अगर भाजपा जीती. तो कौन बनेगा”.
जानकारों को लगता है कि ये सवाल पूछना अभी थोड़ी जल्दबाज़ी है क्योंकि ख़ुद भाजपा ने पहले अपनी लोक सभा सीटों को बढ़ाने की योजना बना रखी है और इसलिए “मतदाताओं को सामने नवीन और नरेंद्र, दोनों को मत देने का विकल्प खुला रहेगा”.
ग्राउंड पर आकर जो आख़िरी लेकिन बेहद अहम बात दिखाई पड़ी वो ये भी है कि ख़ुद नवीन पटनायक, 72 वर्ष की आयु में, इन चुनावों में शायद अपने करियर का सबसे कड़ा चुनाव प्रचार कर रहे हैं.
यानी मैदान में चुनौती तो मिल ही रही है.
अस्वीकरण:
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